तुम बिनु राम नहीं कोउ मेरौ

तुम बिनु राम! नहीं कोउ मेरौ,
बिनु तव चरन-सरन सीतापति!  
दीखै जगत अंधेरौ॥

जब से जनम लियो करुनामय परौ पाप सों भेरौ।
कबहुँ 'राम' मुख नाहिं उचारो, यह तन अघ कौ  ढेरौ॥

काम-क्रोध मद लोभ मोह कौ, चित में तिमिर घनेरौ।
करुनानिधी चपल-मन  मेरौ, सदा पाप कौ चेरौ॥

हे अघ हरन पतित पावन प्रभु, अबकी मोहि निबेरौ।
करुना-सागर करुना करके, कृपाकोर करि हेरौ॥

रघुबर पापी पतित नीच मति, निज-चरनन में फेरौ।
सुनहुँ सियापति है अशोक चित, तव पदकंज चितेरौ॥
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